Bitter Gourd Cultivation: करेला भारत के लगभग सभी प्रदेशों में एक लोकप्रिय सब्जी है। करेला अपने विशेष औषधीय गुणों के कारण सब्जियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके फलों का उपयोग रसेदार भरवाँ या तले हुए शाक के रूप में होता है। कुछ लोग इसे सुखाकर भी संरक्षित करते हैं। यह खीरा वर्गीय फसलों की एक मुख्य फसल है। करेला केवल सब्जी ही नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है। इसके कडवे पदार्थ द्वारा पेट में उत्पन्न हुए सूत्रकृमि और अन्य प्रकार के कृमियों को खत्म किया जा सकता है।
करेले (Bitter Gourd) का उपयोग अनेक दवाइयों में भी होता है। गठिया रोग के लिए यह एक अत्यंत गुणकारी औषधि है। इसको टॉनिक के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। अनेक रोग जैसे मधुमेह आदि के उपचार के लिये यह एक रामबाण है। इसके फलों का रस और पत्तियों का रस आदि से उदर (पेट) के अनेक प्रकार के रोगों को दूर किया जाता है। करेले में अनेक प्रकार के खनिज तत्वों का समावेश होता है।
इसके फलों के 100 ग्राम भोज्य अंश में संतुलित मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन ए और सी आदि पाए जाते हैं। वर्तमान में करेला का चिप्स पाउडर, जूस इत्यादि उत्पाद बनाये जा रहे हैं। करेला की खेती (Bitter Gourd Farming) भारत वर्ष में खरीफ और जायद दोनों ऋतुओं में समान रूप से की जाती है किन्तु संरक्षित दशा में पूरे वर्ष की जा सकती है। इस लेख में करेला की वैज्ञानिक तकनीक से खेती कैसे करें का उल्लेख किया गया है।
करेला की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु (Suitable climate for bitter gourd cultivation)
करेला की अच्छी पैदावार के लिए गर्म और आर्द्रता वाले भौगोलिक क्षेत्र सर्वोत्तम होते हैं। इसलिए इसकी फसल जायद तथा खरीफ दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक उगायी जाती है। किन्तु संरक्षित दशा में पूरे वर्ष की जा सकती है। बीज अंकुरण के लिए 30-35 डिग्री सेन्टीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32-38 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उत्तम होता है। करेला (Bitter Gourd) यद्यपि अपने वर्ग के अन्य शाकों की अपेक्षा अधिक शीत सहन कर लेता है। परन्तु यह पाला नहीं सहन कर पाता है।
करेला की खेती के लिए भूमि का चयन (Selection of land for bitter gourd cultivation)
करेले की फसल को पूरे भारत में अनेक प्रकार की मृदाओं में उगाया जाता है। लेकिन बलुई दोमट तथा जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक तथा पीएच मान 6.0 – 7.0 हो करेला की खेती के लिए उपयुक्त होती है। इसके अलावा नदी किनारे की जलोढ़ मिट्टी भी इसकी खेती के लिए अच्छी होती है। हालाँकि पथरीली या ऐसी भूमि जहाँ पानी लगता हो तथा जल निकास का अच्छा प्रबन्ध न हो करेले (Bitter Gourd) की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है।
करेला की खेती के लिए खेत की तैयारी (Preparation of field for bitter gourd cultivation)
करेले (Bitter Gourd) को खेत में बोने से पहले खेत को तैयार करना बहुत जरूरी है। इसलिए खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करते हैं। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए, जिससे खेत में सिंचाई करते समय पानी कम या ज्यादा न लगे।
करेला की खेती के लिए किस्में (Varieties for cultivation of bitter gourd)
पूसा दो मौसमी: यह करेला (Bitter Gourd) किस्म दोनों मौसम (खरीफ व जायद) में बोयी जाती है। कोमल खाने योग्य फल बीज बुआई के लगभग 55 दिन बाद तुड़ाई योग्य हो जाते हैं। फल हरे, मध्यम मोटे तथा 18 से. मी. लम्बे होते हैं।
पूसा विशेष: इसके फल हरे, पतले, मध्यम आकार के तथा खाने में स्वादिष्ट होते हैं। औसतन एक फल का वजन 115 ग्राम होता है। इसकी उपज 11.4-13.0 टन प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का हरित: इस प्रजाति के फल चमकीले हरे, आकर्षक, चिकने, अधिक गूदेदार तथा मोटे छिलके वाले होते हैं। फल में बीज कम तथा कड़वापन भी कम होता है। इसकी उपज 13.0 टन प्रति हेक्टेयर होता है ।
कल्यानपुर बारह मासी: इस किस्म के फल काफी लम्बे तथा हल्के हरे रंग के होते हैं। यह किस्म खरीफ ऋतु के लिए उत्तम मानी जाती है, मचान बनाकर खेती करने पर लम्बे समय तक पौधे पर फल विकसित होते रहते हैं।
सोलन हरा: इस करेला (Bitter Gourd) किस्म के फलों का रंग हरा, लम्बाई 20 से 25 सेमी और मोटाई 4-5 सेमी होती है। औसत उपज 150-175 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है।
सोलन सफेद: फल सफेद रंग के 20 से 25 सेमी लम्बे और 4-5 सेमी मोटे होते हैं। औसत उपज 150-175 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।
अन्य किस्में: प्रिया को – 1, एसडीयू – 1, कोइम्बटूर लांग, कल्यानपुर सोना, को – 1, बारहमासी करेला आदि।
करेला के बीज की मात्रा और बुआई का समय (Quantity of bitter gourd seeds and sowing time)
बीज की मात्रा: करेला बुआई के लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर में लगभग 5-8 किग्रा होनी चाहिए, बीज अंकुरण क्षमता 80-85 प्रतिशत होना उत्तम है। एक स्थान पर 2-3 बीज 3-5 सेन्टीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए।
बुआई का समय: करेले (Bitter Gourd) की बुआई ग्रीष्म ऋतु में 15 फरवरी से 15 मार्च तक तथा वर्षा ऋतु के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं, और ऊँचे क्षेत्र अप्रैल में बुवाई के लिए उपयुक्त है।
करेला की खेती के लिए बुवाई की विधि (Sowing method for gourd cultivation)
करेले (Bitter Gourd) की बुआई जहाँ तक हो सके मेड़ों पर करनी चाहिए। कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौध से पौध (थाले से थाले) की दूरी 45 से 60 सेमी रखनी चाहिए। साधारणतय: अच्छी प्रकार से तैयार किए गये खेत में 2-5 मीटर की दूरी पर 50-60 सेमी चौड़ी नाली बनाकर नालियों के दोनों किनारों पर बुआई करते हैं।
करेला की फसल में खाद और उर्वरक (Manure and fertilizers in gourd crop)
एक हेक्टेयर खेत के लिए 50 किग्रा नत्रजन, 25-30 किग्रा फास्फोरस तथा 20-30 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से तत्व के रूप में देनी चाहिए। नत्रजन की एक तिहाई मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें। बची हुई नत्रजन की आधी मात्रा करेला (Bitter Gourd) बीज बोने के 30 और 45 दिन बाद जड़ के पास टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
करेला की फसल में सिंचाई प्रबंधन (Irrigation management in gourd crop)
करेला (Bitter Gourd) फसल की सिंचाई मिट्टी की किस्म और जलवायु पर निर्भर करती है। खरीफ ऋतु में खेत की सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु वर्षा न होने पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। अधिक वर्षा के समय पानी के निकास के लिए नालियों का होना अत्यन्त आवश्यक है। गर्मियों में अधिक तापमान होने के कारण 4-5 दिन पर सिंचाई करना चाहिए।
करेला की फसल में खरपतवार नियंत्रण (Weed control in bitter gourd crop)
वर्षा ऋतु या गर्मी में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आयें हो तो उनको निकाल देना चाहिए अन्यथा तत्व व नमी जो मुख्य फसल को उपलब्ध होना चाहिए बेकार चला जाता है । करेले (Bitter Gourd) में पौधे की वृद्धि एवं विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई करना चाहिए।
करेला की फसल को सहारा देना (Supporting the bitter gourd crop)
करेले (Bitter Gourd) की लताओं को लकड़ी का सहारा देने से फल जमीन के सम्पर्क दूर रहते हैं। इससे फलों का आकार और रंग अच्छा रहता है तथा पैदावार भी बढ़ जाती है। इसके लिए प्रत्येक पौधे को सहारा देने की व्यवस्था करनी चाहिए।
करेला की फसल में कीट नियंत्रण (Pest control in bitter gourd crop)
कद्दू का लाल कीट (रेड पम्पकिन बिटिल): इस कीट का वयस्क चमकीली नारंगी रंग का होता हैं तथा सिर, वक्ष एवं उदर का निचला भाग काला होता है। सूण्डी जमीन के अन्दर पायी जाती है। इसकी सूण्डी व वयस्क दोनों क्षति पहुँचाते हैं । प्रौढ़ करेला (Bitter Gourd) पौधों की छोटी पत्तियों पर ज्यादा क्षति पहुँचाते हैं। ग्रब ( इल्ली) जमीन में रहती है, जो पौधों की जड़ पर आक्रमण कर हानि पहुँचाती है।
ये कीट जनवरी से मार्च के महीनों में सबसे अधिक सक्रिय होते है। अक्टूबर तक खेत में इनका प्रकोप रहता है। फसलों के बीज पत्र एवं 4-5 पत्ती अवस्था इन कीटों के आक्रमण के लिए सबसे अनुकूल है। प्रौढ़ कीट विशेषकर मुलायम पत्तियां अधिक पसन्द करते है। अधिक आक्रमण होने से पौधे पत्ती रहित हो जाते है।
नियंत्रण: सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से भी प्रौढ़ पौधा पर नहीं बैठता जिससे नुकसान कम होता है। जैविक विधि से नियंत्रण के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5-10 मिली प्रति लीटर या अजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत 0.5 मिली प्रति लीटर की दर से दो या तीन छिड़काव करने से लाभ होता है। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिली प्रति लीटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिली प्रति लीटर की दर से 10 दिनो के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें।
फल मक्खी: इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है। प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है। इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं। प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है और अण्डे से ग्रन्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग खाकर नष्ट कर देते हैं। कीट फल के जिस भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहाँ से टेढा होकर सड जाता है। करेले (Bitter Gourd) का ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है।
नियंत्रण: गर्मी की गहरी जुताई या पौधें के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाये या शिकारी पक्षियों द्वारा का लिया जाये। ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान ), क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टूकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए।
कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी., 2 ग्राम प्रति लीटर या मैलाथियान 50 ईसी, 2 मिली प्रति लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर 1 हेक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए। प्रतिकर्शी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें, जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाये। आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 0.25 मिली प्रति लीटर या पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं।
करेला की फसल में रोग नियंत्रण (Disease control in bitter gourd crop)
चूर्णील फफूँद: रोग का प्रथम लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुँधले धुसर दिखाई देती है। कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते है। सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में समूचे पौधे की सतह को ढंक लेता है। जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता है। इसके कारण करेला (Bitter Gourd) फलों का आकार छोटा रह जाता है।
नियंत्रण: इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं। फफूँदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मीली प्रति लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
मृदुरोमिल फफूँदी: यह रोग वर्षा और गर्मी वाली दोनों करेला (Bitter Gourd) फसल में लगता हैं। उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक है। इस रोग के लक्षण पत्तियों पर कोणीय धब्बे जो शिराओं पर सीमित होते हैं। ये पत्ती के ऊपरी पृष्ठ पर पीले रंग के होते है तथा नीचे की तरफ रोयेंदार फफूँद की वृद्धि होती है।
नियंत्रण: बीजों को मेटलएक्सल नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए तथा मैकोंजेब 0.25 प्रतिशत पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव रोग के लक्षण प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद करना चाहिए। संक्रमण की उग्र दशा में साइमक्सानिल + मैंकोजेब 1.5 ग्राम प्रति लीटर या मेटालैक्सिल + मैंकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर या मैटीरैम 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के साथ घोल बनाकर 7 से 10 दिन के अन्तराल पर 3-4 बार छिड़काव करें। फसल को मचान पर चढ़ाकर खेती करना चाहिये।
फल विगलन रोग: इस रोग से प्रभावित करेले (Bitter Gourd) के फलों पर कवक की अत्यधिक वृद्धि हो जाने से फल सड़ने लगता है। धरातल पर पड़े फलों का छिलका नरम, गहरे हरे रंग का हो जाता है। आर्द्र वायुमण्डल में इस सड़े हुए भाग पर रूई के समान घने कवक का जाल विकसित हो जाते है। भण्डारण और परिवहन के समय भी करेला फलों में यह रोग फैलता है।
नियंत्रण: करेला (Bitter Gourd) फसल के खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिये। फलों को भूमि के स्पर्श से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए। भण्डारण एवं परिवहन के समय फलों में चोट लगने से बचाएं तथा हवादार एवं खुली जगह पर रखें।
मोजैक विषाणु रोग: यह रोग विशेषकर करेला (Bitter Gourd) की नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता है। पत्तियाँ छोटी एवं हरी-पीली हो जाती है। संक्रमित पौधे का ह्रास शुरू हो जाता है और उसकी वृद्धि रूक जाती है। इसके आक्रमण से पर्ण छोटे और पुश्प पत्तियों में बदले हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ पुष्प गुच्छों में बदल जाते हैं ग्रसित पौधा बौना रह जाता है और उसमें फलत बिल्कुल नहीं होता है।
नियंत्रण: इस रोग की रोकथाम के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं। लेकिन विभिन्न उपायों के द्वारा इसकों काफी कम किया जा सकता है। खेत में से रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर जल देना चाहिए। इमिडाक्लोरोप्रिड 0.3 मीली प्रति लीटर का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल में छिड़काव करें।
करेला के फलों की तुड़ाई और उपज (Picking and yield of bitter gourd fruits)
फलों की तुड़ाई: जब फलों का रंग गहरे हरे से हल्का हरा पड़ना शुरू हो जाय तो फलों की तुड़ाई करने के लिए उत्तम माना जाता है। फलों की तुड़ाई एक निश्चित अन्तराल पर करते रहना चाहिए, ताकि फल कड़े न हों अन्यथा उनकी बाजार में मांग कम होती है। बोने के 60-75 दिन बाद फल तोड़ने योग्य हो जाते हैं। यह कार्य हर तीसरे दिन करना चाहिए।
पैदावार: करेले (Bitter Gourd) की खेती से उपरोक्त विधि से उन्नत किस्मों द्वारा औसतन उपज प्रति हेक्टेयर लगभग 150 से 200 कुन्तल प्राप्त की जा सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न? (FAQs)
करेले की बुवाई दो तरीके से की जाती है; एक सीधे बीज से और दूसरा नर्सरी विधि से। नदियों के किनारे की ज़मीन करेले (Bitter Gourd) की खेती के लिए अच्छी होती है। फसल में अच्छी वृद्धि, फूल और फलन के लिए 25 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान सही माना जाता है। बीजों के अंकुरण के लिए 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड का ताप अच्छा होता है।
करेले की फसल को मानसून और गर्मी के मौसम में लगाया जाता है। करेले (Bitter Gourd) की अच्छी उपज के लिए गर्म और आद्र जलवायु अत्याधिक उपयुक्त होती है। इसकी खेती के लिए न्यूनतम तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेट और अधिकतम तापमान 35 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट के बीच होना चाहिए।
करेला अच्छी जल निकासी वाली रेतीली से लेकर रेतीली दोमट मध्यम काली मिट्टी में उगाया जा सकता है, जिसमें कार्बनिक पदार्थ भरपूर मात्रा में हों। नदी के किनारे की जलोढ़ मिट्टी भी करेले (Bitter Gourd) के उत्पादन के लिए अच्छी होती है। 6.0- 7.0 की पीएच रेंज को इष्टतम माना जाता है।
मैदानी इलाकों में गर्मी के मौसम की करेला (Bitter Gourd) फसल जनवरी से फरवरी तक बोई जाती है, जबकि बरसात के मौसम की फसल मई के महीने में बोई जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में बोने के लिए 4-5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बोने से पहले बीज को थिरम (3 ग्राम प्रति किग्रा बीज) से उपचारित किया जाता है।
पूसा हाइब्रिड 1: करेले की ये किस्म देश के उत्तरी मैदानी क्षेत्रों में खेती करने के लिए उपयुक्त है। इसके फल हरे एवं थोड़े चमकदार होते हैं। वहीं इसकी खेती वसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु एवं वर्षा ऋतु, तीनों ऋतुओं में आसानी से की जा सकती है। करेले (Bitter Gourd) की इस किस्म की पहली तुड़ाई 55 से 60 दिनों में की जा सकती है।
करेले (Bitter Gourd) के पौधे को 6 से 8 घंटे की धूप मिलना बेहद जरूरी है। इसलिए गमले को ऐसी जगह पर रखें, जहां पर्याप्त धूप आती हो। गमले में करेले के बीज बोने के लगभग 55 से 60 दिनों के बाद पौधों में फल आने लगेंगे।
करेले की इष्टतम उपज के लिए उचित उर्वरक प्रबंधन महत्वपूर्ण है। 50% पोल्ट्री खाद +50% एनपीके के उपयोग से करेले (Bitter Gourd) के फलों की लंबाई, व्यास, वजन, संख्या और उपज में वृद्धि हुई। जैविक और अकार्बनिक उर्वरकों के एकीकृत उपयोग से करेले के पौधों की वृद्धि और उपज क्षमता में वृद्धि होती है।
गर्मियों में आवश्यकतानुसार और सर्दियों में हर वैकल्पिक दिन करेला की वेल को पानी दें। करेला (Bitter Gourd) फसल की सिंचाई वर्ष आधारित है। इसलिए प्रति 8-10 दिनों बाद सिंचाई की जाती है।
करेला (Bitter Gourd) की फसल से 1 एकड़ में लगभग 50-60 क्विंटल तक की अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
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