
Jute Farming in Hindi: भारत के कृषि परिदृश्य में जूट (पटुआ या पटसन) की खेती का एक महत्वपूर्ण स्थान है, जो एक समृद्ध ऐतिहासिक विरासत और आर्थिक महत्व समेटे हुए है। अपनी टिकाऊ विशेषताओं और व्यापक अनुप्रयोगों के लिए जानी जाने वाली यह बहुमुखी फसल भारत में सदियों से उगाई जाती रही है।
उपजाऊ गंगा के मैदानों से लेकर तटीय क्षेत्रों तक, देश भर में विविध कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जूट के बागान फलते-फूलते हैं। यह लेख भारत में जूट की खेती की पेचीदगियों पर प्रकाश डालता है, इसके ऐतिहासिक महत्व, खेती की तकनीक, आर्थिक प्रभाव, चुनौतियों और अवसरों की खोज करता है।
जूट की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु (Suitable climate for jute cultivation)
जूट उगाने के लिए उपयुक्त जलवायु गर्म और आर्द्र जलवायु सबसे उत्कृष्ट माना जाता है, इसके लिए 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान और 70%-90% की सापेक्ष आर्द्रता अनुकूल है। इस फसल के लिए 24-35 डिग्री सेल्सियस तापमान सबसे उपयुक्त है। जूट (Jute Farming) को सालाना 160-200 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है और बुआई के दौरान इसकी अतिरिक्त आवश्यकता होती है।
जूट की खेती के लिए भूमि का चयन (Selection of land for jute cultivation)
जूट कई तरह की मिट्टी में उग सकता है। लेकिन जूट की खेती (Jute Farming) के लिए समतल, दोमट और मटियार दोमट भूमि का चयन करना चाहिए। इस भूमि में पानी का निकास अच्छा होना चाहिए और पानी रोकने की क्षमता भी होनी चाहिए। मिट्टी का पीएच 6 -7.5 आदर्श मिट्टी का पीएच है, जहाँ जूट की खेती की जाती है।
जूट की खेती के लिए खेत की तैयारी (Preparation of field for jute cultivation)
जूट की खेती (Jute Farming) के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई तथा बाद में 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करके, पाटा लगाकर भूमि को भुरभुरा बनाकर खेत बुआई के लिए तैयार किया जाता है। चूंकि जूट का बीज बहुत छोटा होता है, इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना आवश्यक है ताकि बीज का जमाव अच्छा हो। भूमि में उपयुक्त नमी जमाव के लिए अच्छी समझी जाती है।
जूट की खेती के लिए उन्नत किस्में (Advanced varieties for jute cultivation)
जुट की आमतौर पर दो प्रकार की किस्मों की होती हैं – कैपसुलेरिस और ओलीटोरियस। इन दोनों किस्मों की कई प्रजातियां होती हैं। कैपसुलेरिस को सफेद जूट भी कहा जाता है। दोनों प्रकार में जुट (Jute) की किस्में इस प्रकार है, जैसे-
कैपसुलेरिस: आरसी – 321, आरसी – 212, यूपीसी – 94 (रेशमा), आरसी – 698, अंकित (एनडीसी) – 2008 और एनडीसी – 9102 आदि प्रचलित है।
ओलीटोरियस: आरओ – 632, जेआरओ – 878, आरओ – 7835, आओ – 524 (नवीन) और जेआरओ – 66 इत्यादि प्रचलित है।
जूट की बुवाई का समय और बीजदर (Jute sowing time and seed rate)
बुवाई का समय: जूट की खेती के लिए कैपसुलेरिस किस्मों की बुवाई फरवरी से मार्च में की जाती है, जबकि ओलीटोरियस किस्मों की बुआई अप्रैल के अंत से मई तक की जा सकती है। जूट की फसल को काटने का समय जून से सितंबर के बीच होता है।
बीज की मात्रा: सीड ड्रिल से पंक्तियों में बुआई करने पर कैपसुलेरिस प्रजातियों के लिए 4-5 किग्रा तथा ओलिटेरियस के लिए 3-5 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। छिड़कवां बोने पर 5-6 किग्रा बीज की आवश्यकता होती है।
बीज उपचार: बुवाई से पहले जूट (Jute) के बीज को थीरम 3 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति किलो बीज से शोधित करके बोना चाहिए।
जूट की खेती के लिए बुवाई का तरीका (Sowing method for jute cultivation)
जूट की खेती (Jute Farming) के लिए बीजों को छिटककर या लाइन में बोया जा सकता है। लाइन में बुआई के लिए सीड ड्रिल या हल का इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि अच्छी उपज के लिए बुवाई लाइनों में करनी चाहिए। लाइनों से लाइनों का दूरी 30 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 7-8 सेमी और गहराई 2-3 सेमी से अधिक नहीं होनी चाहिए। मल्टीरो जूट सीड ड्रिल के प्रयोग से 4 लाइनों की बुआई एक बार में हो जाती है और एक व्यक्ति एक दिन में एक एकड़ की बुआई कर सकता है।
जुट की फसल के लिए खाद और उर्वरक (Manure and fertilizer for jut crop)
जुट की खेती (Jute Farming) के लिए उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाए अथवा कैपसुलेरिस किस्मों के लिए 60:30:30 और ओलीटोरियस के लिए 40:20:20 किग्रा नत्रजन फास्फोरस एवं पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई से पूर्व देना चाहिए। यदि बुआई के 15 दिन पूर्व 100 कुन्तल कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर डाल दी जाए तो पैदावार अच्छी होती है।
जूट की फसल में सिंचाई प्रबंधन (Irrigation Management in Jute Crop)
जूट की फसल (Jute Crop) को बढ़ने के लिए पर्याप्त पानी की जरूरत होती है। जूट को अपनी वृद्धि और विकास के लिए लगभग 50 सेमी पानी की आवश्यकता होती है। भारत में लगभग 15% जूट क्षेत्र सिंचित है और शेष क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है। यदि वर्षा पर्याप्त नहीं है, तो सिंचाई के माध्यम से पानी की आवश्यकता को पूरा करना पड़ता है। जूट के बीज के अंकुरण के लिए लगभग 18-20% मिट्टी की नमी की आवश्यकता होती है।
जुट की फसल में खरपतवार नियंत्रण (Weed control in jute crop)
जुट की फसल में बुवाई के 20-25 दिन बाद खरपतवार निराई करके निकाल देना चाहिए और विरलीकरण करके पौधे से पौधे की दूरी 6-8 सेमी कर देना चाहिए। खरपतवार का नियन्त्रण खरपतवार नाशी रसायनों से भी किया जा सकता है। पौध उगने से पूर्व पेन्डीमेथिलीन 30% ईसी 3.3 लीटर अथवा फ्लूक्लोरोलिन 1.50 से 250 किग्रा प्रति हेक्टर 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने के बाद जुताई करके मिट्टी में मिला देने से खरपतवार नहीं उगते है।
खड़ी जूट की फसल (Jute Crop) में खरपतवार नियंत्रण हेतु 30-35 दिन के अन्दर क्यूनालफास इथाइल 5 प्रतिशत की एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है।
जुट की फसल में किट और रोग नियंत्रण (Pest and disease control in jut crop)
रोग नियंत्रण: जूट की फसल (Jute Crop) आमतौर पर दो बीमारियों से प्रभावित होती है, जड़ तथा तना सड़न तथा इन बीमारियों से कभी-कभी फसल पूर्णतः नष्ट हो जाती है। इससे बचाव के लिए बीज को शोधित करके ही बोना चाहिए। इन बीमारियों से बचाव के लिये ट्राइकोडरमा विरिडी 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर तथा 2.5 किलो प्रति हेक्टेयर 50 किग्रा गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए।
कीट नियंत्रण: जूट फसल (Jute Crop) पर सेमीलूपर, एपियन, स्टेम बीविल कीटों का प्रकोप होता है। इन कीटों के रोकथाम हेतु 1.5 लीटर डाइकोफाल को 700-800 लीटर पानी में घोलकर फसल की 40-45, 60-65 तथा 100-105 दिन की अवस्थाओं पर छिड़काव किया जा सकता है। इन कीटों के नियंत्रण के लिए नीम उत्पादित रसायन एजादीरेक्सीन 0.03 प्रतिशत के 1.5 लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
जुट फसल की कटाई (Harvesting of Jute Crop)
जुट की फसल (Jute Crop) से उत्तम रेशा प्राप्त करने हेतु 100 से 120 दिन की फसल हो जाने पर कटाई की जा सकती है। जल्दी कटाई करने पर प्रायः रेशे की उपज कम प्राप्त होती है। लेकिन देर से काटी जाने वाली फसल की अपेक्षा रेशा अच्छा होता है। छोटे तथा पतले व्यास वाले पौधों को छांटकर अलग-अलग छोटे-छोटे बंडलों में (15-20 सेमी) बांधकर दो तीन दिन तक खेत में पत्तियों के गिरने हेतु छोड़ देना चाहिए।
जुट के पौधों को सड़ाना (Rotting of Jute Plants)
जूट (Jute) के कटे हुए पौधों के बन्डलों को पहले खड़ी दशा में 2-3 दिन पानी में रखने के बाद एक दो पंक्ति में लगाकर तालाब या हल्के बहते हुए पानी में 10 सेमी गहराई तक जाकर डुबोने के पूर्व पानी वाले खरपतवार से ढककर किसी वजनी पत्थर के टुकड़े से दबा देना चाहिए।
साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बन्डल तालाब की निचली सतह से न छूने पाये। सामान्य स्थिति होने पर 15-20 दिन में पौधा सड़कर रेश निकालने योग्य हो जाता है। बैक्टीरियल कल्चर के प्रयोग से सड़ान में 4 प्रतिशत समय की बचत के साथ-साथ रेशे की गुणवत्ता बढ़ जाती है।
जुट का रेशा निकालना और उपज (Jut fiber extraction and yield)
रेशा निकालना: प्रत्येक सड़े हुए पौधों के रेशों को अलग-अलग निकालकर हल्के बहते हुए साफ पानी में अच्छी तरह धोकर किसी तार, बांस इत्यादि पर सामानान्तर लटकाकर कड़ी धूप में 3-4 दिन तक सुखा लेना चाहिए। सुखाने की अवधि में रेशे को उलटते-पलटते रहना चाहिए।
उपज: उपरोक्त व सघन पद्धतियों को अपनाकर 25-35 कुन्तल प्रति हेक्टेयर जूट (Jute) रेशे की उपज प्राप्त की जा सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न? (FAQs)
पटसन, पाट या पटुआ एक द्विबीजपत्री, रेशेदार पौधा है। इसका तना पतला और बेलनाकार होता है। इसके तने से पत्तियाँ अलग कर पानी में गट्ठर बाँधकर सड़ने के लिए डाल दिया जाता है। इसके बाद रेशे को जुट के (Jute) पौधे से अलग किया जाता है।
जूट (Jute) एक प्राकृतिक रेशे वाली फसल है, जिसकी बुवाई या तो छिटक कर या फिर लाइन में बोने की विधि से की जा सकती है। लाइन में बोने के लिए, जमीन को अच्छी तरह से तैयार किया जाता है और पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर बुवाई की जाती है: कैप्सुलरिस – 30 सेमी, ओलिटोरियस – 25 सेमी और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेमी रखी जाती है और यह यांत्रिक साधनों यानी बीज ड्रिल द्वारा किया जाता है। फिर डंठलों को पानी में भिगोया जाता है ताकि रेशों को तने से अलग किया जा सके।
जूट (Jute) रेतीली दोमट और चिकनी दोमट मिट्टी में सबसे अच्छी तरह से उगता है। जलोढ़ या दोमट मिट्टी जूट की खेती के लिए सबसे अच्छी होती है।
जूट (Jute) एक बरसाती फसल है, जिसे वर्षा और भूमि के प्रकार के अनुसार मार्च से मई तक बोया जाता है। इसकी कटाई जून से सितंबर तक की जाती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि बुवाई जल्दी हुई है या देर से। जूट को 24° C से 37° C के बीच गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।
जूट (Jute) के बेहतर उत्पादन के लिए डी डब्ल्यू आर बी 92, डी डब्ल्यू आर बी 160, आरडी 2907, करण 201, 231 व 264 और आरडी 2899 को अच्छी उपज देनी वाली उन्नत किस्में माना जाता है।
जूट के पौधों का विकास चक्र अपेक्षाकृत छोटा होता है, आमतौर पर लगभग 100 से 120 दिन लगते है। पौधे 2.4 से 3.7 मीटर (8 से 12 फीट) की ऊंचाई तक बढ़ते हैं और उनका तना खोखला होता है। जूट (Jute) के रेशों को पौधों से तब काटा जाता है जब वे पूरी तरह खिल जाते हैं, क्योंकि यह वह अवस्था होती है जब रेशे उच्चतम गुणवत्ता के होते हैं।
जूट की खेती (Jute Farming) के लिए खाद, फ़ॉस्फ़ोरस, पोटाश, यूरिया, और नाइट्रोजन जैसे उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। जूट की फ़सल को ज़्यादा उर्वरक की ज़रूरत होती है, जिससे इसकी अच्छी पैदावार होती है।
जूट की खेती (Jute Farming) से अच्छी पैदावार पाने के लिए, जरूरी मात्रा में उर्वरक डालना चाहिए। जूट की खेती से 120 से 140 दिनों में कटाई की जा सकती है और उपरोक्त तकनीकों को अपनाकर 25-35 प्रति हेक्टेयर रेशे की उपज प्राप्त की जा सकती है।
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