विश्व की एक महत्वपूर्ण फसल मटर को दलहन की रानी की संज्ञा दी जाती है। मटर की खेती (Pea Farming) हरी फली, साबुत मटर तथा दाल के लिए की जाती है। मटर की हरी फलियाँ सब्जी के लिए तथा सूखे दानों का उपयोग दाल और अन्य भोज्य पदार्थ तैयार करने मे किया जाता है। हरी मटर के दानो को सूखा कर या डिब्बा बन्द कर संरक्षित कर बाद में उपयोग कर सकते है।
पोषक मान की दृष्टि से मटर (Pea) के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 22.5 ग्राम प्रोटीन, 1.8 ग्राम वसा, 62.1 ग्राम कार्बोहाइट्रेड, 64 मिली ग्राम कैल्शियम, 4.8 मिली ग्राम लोहा, 0.15 मिली ग्राम राइबोफलोनिक, 0.72 मिली ग्राम थाइमीन तथा 2.4 ग्राम नियासिन पाया जाता हैं।
फलियाँ निकालने के बाद हरे और सूखे पौधों का उपयोग पशुओं के चारे के रूप में किया जा सकता हैं। दलहनी फसल होने के कारण, मटर की खेती (Pea Farming) करने से मिटटी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाके मे सर्दियों मे और पहाड़ी इलाकों में गर्मियों में की जाती है। मध्य प्रदेश, बिहार, उतर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा राज्यों मे बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है।
मटर की खेती के लिए जलवायु (Climate for Pea Cultivation)
वह क्षेत्र जहाँ चार महीने तक ठण्डा का मौसम हो तथा साथ ही साथ धीमी गति से मौसम गर्मी की ओर अग्रसर होता हो, मटर (Pea) उत्पादन के लिए अच्छा माना जाता है। बीज जमाव के लिए आदर्श तापमान 13-18° सेंटीग्रेड होता है। किन्तु यह अधिकतम 22° सेंटीग्रेड तापमान तक भी बीज जमाव हो सकता है। यदि बीज का जमाव कम तापमान पर होता है, तो पौधा शाखायुक्त और धीमी बढ़वार वाला होता है।
लेकिन अधिक तापमान होने पर पौधा लम्बी बढ़वार वाला हो जाता है। छोटे पौधों में पाला सहन करने की विशेष क्षमता होती है, परंतु फूल एवं फलियों के बनने के समय शुष्क तथा थोड़ा गर्म मौसम उसके गुणों तथा उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। तापमान जब 30 डीग्री सेन्टीग्रेड से ऊपर हो जाता है तो इन फलियों की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
मटर की खेती के लिए भूमि का चयन (Selection of Land for Pea Cultivation)
मटर की खेती (Pea Cultivation) सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। परन्तु उत्तम जल निकास वाली वलुई दोमट मिट्टी जिसमें कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो सबसे अच्छी मानी जाती है। वह मिट्टी जिसमें पानी न ठहरता हो तथा पानी सोखने की क्षमता अधिक हो, हरे फल तथा बीजों के उत्पादन को बढ़ा देता है। आदर्श पी.एच. मान 6 – 7.5 माना जाता है। अत्यधिक अम्लीय तथा क्षारीय मिट्टी इसके उत्पादन को प्रभावित करती है।
मटर की खेती के लिए खेत की तैयारी (Preparation of Field for Pea Cultivation)
मटर की खेती (Pea Cultivation) के लिए खेत का पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलट हल सें करे। इसके बाद 2 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा कर खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए | इसके बाद राइजोबियम कल्चर (5 ग्राम प्रति किग्रा बीज) से बीजोपचार करने से लाभ होता है।
मटर की खेती के लिए किस्में (Varieties for Pea Cultivation)
मटर की किस्मों को दो भागों में बांटा गया है जिससे से एक फील्ड मटर और दूसरा गार्डेन मटर या सब्जी मटर (Pea) है। जिनका राज्यवार विवरण इस प्रकार है, जैसे-
पंजाब: जय (केपीएमआर- 522 ), पंत मटर- 42, केएफपी-103, उत्तरा (एचएफपी- 8909) और अमन (आईपीएफ- 5-19) आदि प्रमुख है।
हरियाणा: उत्तरा (एचएफपी- 8909), डीडीआर- 27 ( पूसा पन्ना ), हरीयाल (एचएफपी- 9907 बी), अलंकार, जयंती (एचएफपी- 8712) (आईपीएफ- 5-19) आदि प्रमुख है।
उत्तरप्रदेश: स्वाती (केपीएफडी- 24 ) मालवीय मटर (एचयूडीपी- 15), विकास, सपना, (केपीएमआर- 1441) और आईपीएफ- 4-9 आदि प्रमुख है।
राजस्थान: डीएमआर- 7 (अलंकार) और पंत मटर- 42 आदि प्रमुख है।
मध्यप्रदेश: प्रकाश (आईपीएफडी- 1-10) विकास (आईपीएफडी- 99-13) आदि प्रमुख है।
महाराष्ट्र: जेपी- 885, अंबिका, इंद्रा (केपीएमआर- 400 ) आदर्श (आईपीएफ 99- 25) और आईपीएफडी- 10-12 आदि प्रमुख है।
गुजरात: जेपी- 885, आईपीएफडी- 10-12, इन्द्रा और प्रकाश आदि प्रमुख है।
बिहार: डीडीआर- 23 (पूसा प्रभात) और वीएल मटर 42 आदि प्रमुख है।
छत्तीसगढ़: शुभ्रा (आईएम- 9101) विकास (आईपीएफडी- 99-13), पारस और प्रकाश आदि प्रमुख है।
उत्तराखंड: पंत मटर-14, पंत मटर- 25 और वीएल मटर- 47 आदि प्रमुख है।
झारखंड: पंत मटर- 42 और वीएल मटर 42 आदि प्रमुख है।
मटर की खेती के लिए बीज उपचार (Seed treatment for Pea Cultivation)
बुवाई से पहले बीज शोधन केवल जमाव प्रतिशत ही नहीं बल्कि उत्पादन में भी लाभ पहुँचाता है। राइजोविजम कल्चर को 10% गुड़ के जलीय घोल से बीज को अच्छी तरह उपचारित कर छाया में सुखा लेना चाहिए। उकठा रोग से बचने के लिए मटर (Pea) बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा से उपचारित कर लेना चाहिए।
उपचारित मटर (Pea) बीज की 5-8 सेमी गहराई पर बुवाई करते हैं। अगेती किस्मों के लिए बीज से बीज की दूरी 4-5 सेमी तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 सेमी तथा मध्य पकने वाली प्रजातियों को बीज से बीज की दूरी 5-8 सेमी तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-40 सेमी रखते हैं।
मटर की खेती के लिए बुवाई की विधि (Sowing Method for Pea Cultivation)
मैदानी भागों में मटर (Pea) की बुवाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर नवम्बर के अन्त तक करते हैं। जबकि पहाड़ी भागों में मध्य फरवरी से लेकर अप्रैल के अन्त तक करते हैं। समय से पहले तथा समय के बाद बुवाई करने पर उत्पादन और गुणवत्ता दोनो पर प्रभाव डालता है।
अतः मुख्य मौसम में अच्छे उत्पादन हेतु बुवाई लाभप्रद होती है। अगेती प्रजातियाँ के लिए 125-150 किग्रा तथा मध्यम पकने प्रजातियों के 100-120 किग्रा बीजों की प्रति हेक्टेयर बुवाई की जरूरत पड़ती है। अगेती बुवाई में बीज की मात्रा बढ़ाकर प्रयोग करना चाहिए क्योंकि पौधे की बढ़वार कम होती है।
मटर के लिए पोषक तत्व प्रबंधन (Nutrient Management for Pea)
मटर (Pea) की जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु रहता जो वायुमण्डल की नेत्रजन को पौधों की जड़ों तक पहुँचाता है। अतः नेत्रजन की आवश्यकता को लगभग जीवाणु ही पूर्ण करने में सक्षम होते हैं। परंतु यह जीवाणु अपना कार्य पौधे के एक निश्चित आयु में आरंभ करते हैं। जिससे बुवाई करने से पहले नाइट्रोजन की थोड़ी मात्रा मिट्टी में मिलाई जाती है। बुवाई से पहले 100-150 कुन्तल प्रति हेक्टेयर गोबर की पूर्णरूप से सड़ी हुई खाद देना चाहिए।
मटर की फसल (Pea Crop) से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए 50-70 किग्रा नेत्रजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस और 40-60 किग्रा पोटाश की प्रति हेक्टेयर मटर के लिए प्रयोग की जाती है। फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के समय देते हैं एवं आधी बची नेत्रजन की मात्रा बुवाई के 30-40 दिनों बाद प्रथम सिंचाई के बाद प्रयोग की जाती है।
मटर फसल में खरपतवार नियंत्रण (Weed Control in Pea Crop)
मटर की फसल (Pea Crop) से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए खरपतवार नियंत्रण आवश्यक होता है जो बुवाई के सामान्यतः 25-30 दिन तक खुर्पी की सहायता से निराई की जा सकती है। रसायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के दो दिनो के अन्दर एलाक्लोर अथवा पेन्डीमेथिलीन का छिड़काव खरपतवार को उगने नहीं देता है। जिससे फसल खरपतवार मुक्त रहती है।
मटर फसल में सिंचाई प्रबंधन (Irrigation Management in Pea Crop)
बुवाई के समय खेत की नमी के आधार पर सिंचाई निश्चित करनी चाहिए। यदि खेत में नमी बिल्कुल ही नहीं हो तब खेत को पलेवा करना जरूरी हो जाता है तथा खेत जुताई योग्य तैयार हो जाए उसे अच्छी प्रकार से जुताई करके ही बीज बोने का कार्य करना चाहिए। मिट्टी यदि काफी हल्की हो तो कम नमी होने पर बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई की जा सकती है।
मटर (Pea) को कम से कम एक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। जिसके लिए फुहारे वाली विधि सबसे अच्छी होती है। इस विधि में पानी आवश्यकतानुसार ही पौधों को दिया जाता है। जिससे पौधे अच्छी बढ़वार प्राप्त कर लेते हैं, जो उसके उपज पर काफी अच्छा प्रभाव डालता है। फूल आने के पहले तथा बाद में सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिए।
मटर की फसल में रोग नियंत्रण (Disease Control in Peas Crop)
चूर्णिल आसिता: यह फफूंद जनित रोग है। यह रोग हवा के द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुँच जाता है। पौधे के पत्ती और फलों एवं सफेद रंग के चूर्ण वाले धब्बे दिखाई देते है। सुखा मौसम इस रोग को बढ़ाने में सहायक होता है। रोग का असर अगर प्रारंभिक अवस्था में हो जाय तो पुष्पन तथा फलन दोनो प्रभावित होता है। बुवाई निश्चित समय से करनी चाहिए। संक्रमण होने पर सल्फर की 2.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर या कैराथेन अथवा डिनोकाप का 0.2% घोल दस दिनों के अन्तराल पर तीन बार छिड़काव करना चाहिए। रोगरोधी किस्मों का उपयोग करना चाहिए।
गेरूई रोग: यह रोग फफूँद द्वारा फैलता है। यह रोग खरपतवार में संरक्षित रहता है, जो हवा से फसल में पहुँचता है। यह रोग पत्तियों और तना पर प्रभाव डालता है। अधिक नमी होने पर अधिक नुकसान पहुँचाता है। इसके नियंत्रण के लिए रोगी पौधे, खरपतवार और रोगी भाग को नष्ट कर देना चाहिए। उचित फसलचक्र अपनाना चाहिए। डाइथेन एम-45 अथवा कैलिक्सिन का 0.2% के घोल का तीन से चार बार 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव लाभकारी होता है।
जड़ गलन: यह रोग फफूँद से होता है। जिसमें पत्तियाँ पीली पड़ जाती है। यह फफूँद मिट्टी में रहता है जो जड़ो को संक्रमित कर पूरे पौधे को सुखा देता है। तना नीचे से पिले होकर सूख जाती है। इसके नियंत्रण के लिए ट्राइकोडर्मा पाउडर 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए। फसलचक्र अपनाना और बुवाई से पूर्व कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
मटर की फसल में कीट नियंत्रण (Pest Control in Peas Crop)
तना मक्खी: इस कीट की प्यूपा और लार्वा तनें को नुकासान पहुँचाते हैं। जिससे पौधा टुटकर सूख जाता है। इसका प्रकोप बुवाई के 20 दिनों बाद दिखता है। इसके नियंत्रण के लिए बीजो को थायोमेथोक्जाम से शोधन करना एवं बुवाई के 30 दिन बाद मिथायाल आक्सीडेनेटोन का 300 ग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
मटर का फली बेधक कीट: यह मटर का सबसे प्रमुख कीट है। जिसकी सूड़ी फली में छेदकर अन्दर पहुँचकर हरे दानों को खाने लगती है। इस कीट के नियंत्रण के लिए कार्वारिल का 1.0 किग्रा इन्डोसल्फान का 750 ग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
माहूँ: यह कीट छोटा, काला और मुलायम शरीर वाला होता है। इसका आक्रमण जनवरी माह से प्रारम्भ हो जाता है। यह पौधे के ऊपरी भाग, पत्तियों एवं तनों का रस चूस लेता है। जिससे पौधा छोटा तथा पत्तियाँ तथा तने अनियमित ढंग से मुड़ जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए थायोमेथाक्जोन दवा 1 ग्राम प्रति 5 लीटर की दर से या इण्डोसल्फान 750 ग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
पर्ण सुरंगक कीट: इस कीट का प्यूपा काफी नुकसान पहुँचाता है, जो पत्ति में सफेद धागे जैसे बारीक सुरंग बना देता है, जो पौधे को भोजन बनाने में बाधा उत्पन्न करता है, जिससे पौधे सुख जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए नीम गिरी अर्क 4% घोल 15 दिन के अन्तराल पर चार बार और डाइक्लोरोवास (0.03%) का छिड़काव करना चाहिए।
बीटिल: यह कीट सिर्फ बीजों को खाता है। मादा कीट सुखे बीज के अन्दर छिद्र करके अण्डे देती है, जहाँ सूड़ी विकसित होती है, जो बीज का खाकर खोखला कर देती है। इसके नियंत्रण के लिए बीज भंडारगृह में धुआँ करके और बीजों की छटाई करके रखना चाहिए। यह कीट खेत में नुकसान न पहुँचाए इसके लिए मैलाथियान 2 मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। बीज के भण्डारण के समय क्लोरोपाइरीफास (10 मिली प्रति लीटर पानी) से उपचारित करके भंडारण करना चाहिए।
मटर की तुड़ाई, उपज और भण्डारण (Harvesting, Yield and Storage of Peas)
फलियों की समय से तुड़ाई, पौधों का जीवन अवधि के बढ़ाने के साथ-साथ उत्पादन में भी वृद्धि करता है। फलियाँ दानों से भर गई हो उसी समय तुड़ाई करनी चाहिए। समान्यत: जब 25% से अधिक फलियां परिपक्व हो गई हो तभी तुड़ाई करनी चाहिए। अत: लाभ के लिए जल्दी परिपक्व होने वाली तथा अधिक तुड़ाई देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए।
तीन से चार तुड़ाई समान्यत: अच्छे किस्मों द्वारा मिल जाती है। उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से और उत्तम कृषि कार्य प्रबंधन से लगभग पकी हुई अवस्था में 18 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है और हरी फलियों की 90 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न? (FAQs)
मटर 12.8-18 डिग्री सेल्सियस के बीच के ठंडे मौसम और 6.0-7.5 के मिट्टी के पीएच में सबसे अच्छी तरह से पनपती है। इन्हें आमतौर पर मैदानी इलाकों में अक्टूबर से नवंबर या पहाड़ियों में मार्च से मई के बीच रबी के मौसम में बोया जाता है। उचित बुवाई, निराई, डंडे और सिंचाई इष्टतम उपज प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण खेती के तरीके हैं।
मैदानी इलाकों में मटर (Pea) की बुवाई अक्टूबर से नवंबर के मध्य में सर्दियों की फसल के रूप में की जाती है। पहाड़ों में इसे मई में शरद ऋतु की फसल के रूप में बोया जाता है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में अक्टूबर से मार्च के दौरान बुवाई की जाती है। बीजों को सीधे मुख्य खेत में बोया जाता है।
बुवाई के 75 दिन बाद कटाई की जा सकती है। कटाई के दौरान उच्च तापमान मटर (Pea) की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। 8 -15 टन प्रति हेक्टेयर फलियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।
यह एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है जो आमतौर पर सब्ज़ियों और दालों दोनों के उद्देश्यों को पूरा करती है। मटर (Pea) के अधिक उत्पादन के लिए, उत्पादन अनुशंसाओं का सावधानीपूर्वक पालन किया जाना चाहिए।
मटर को अपने विकास काल के दौरान 10-18 डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान वाली ठंडी जलवायु पसंद होती है। जब रोपण के समय तापमान 5 डिग्री सेल्सियस से कम होता है तो बीज का अंकुरण बाधित होता है। मटर (Pea) विकास के शुरुआती चरणों में ठंढ को सहन कर सकता है।
मटर की खेती (Pea Farming) सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है परंतु अधिक उत्पादन हेतु दोमट और बलुई भूमि जिसका पी. एच. मान. 6-7.5 हो तो अधिक उपयुक्त होती है।
खरीफ की फसल की कटाई के बाद भूमि की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल करके 2-3 बार हैरो चलाकर अथवा जुताई करके पाटा लगाकर भूमि तैयार करनी चाहिए। धान के खेतों में मिट्टी के ढेलों को तोडऩे का प्रयास करना चाहिए। अच्छे अंकुरण के लिए मिट्टी में नमी होना जरुरी है।
मटर (Pea) बिजाई के लिए 35-40 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें।
मटर की फसल (Pea Crop) में खाद देना बेहद जरूरी है। मटर की खेती में मटर के पौधे की अच्छी विकास के लिए और मटर की अच्छी उपज के लिए खाद डालना चाहिए। मटर की खेती में सड़ा हुआ गोबर, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, यूरिया, डीएपी, और पोटाश भी देना चाहिए।
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