Pumpkin Farming: कद्दू को काशीफल, सीताफल, कुम्हड़ा, पेठा, भतुआ, मखना आदि जैसे नामों से जाना जाता है। भारत में कद्दू की खेती पुरातन काल से होती आ रही है। कददूवर्गीय सब्जियों में कददू का विशेष स्थान है। इसके कच्चे व पके हुए फलों से कई प्रकार की सब्जियां बनाई जाती हैं। कद्दू कच्चा और पका फल सब्जी के लिए तथा पके फलों का मिठाई (पेठा) बनाने में प्रयोग होता है। कुम्हड़ा या कददू की किस्म मिष्ठान पेठा बनाने में प्रयुक्त होती है।
इसके पके हुए फलों को साधारण ताप पर भी लम्बे समय तक रखा जा सकता है। यही कारण है कि जिस समय बाजार में सब्जियों का अभाव रहता है, उस समय भी यह उचित मूल्य पर उपलब्ध रहता है। इसकी कोमल पत्तियों तथा फूलों की भी पहाड़ी लोग स्वादिष्ट सब्जी बनाकर उपयोग में लाते हैं। इसके बीज चीनी या शक्कर के साथ मिलाकर फीताकृमि (टेपवर्म) से पीड़ित व्यक्तियों को खिलाते हैं।
कद्दू (Pumpkin) के फलों का गूदा फुलटिस के रूप में फोड़ों और घाव पर बाँधा जाता है। इसकी सब्जी में सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। कम लागत केराटीन की अधिक मात्रा तथा अच्छी भंडारण क्षमता के कारण ग्रीष्म कालीन सब्जियों में कद्दू (Pumpkin) की सब्जी अधिक पसंद की जाती है। इस लेख में कद्दू की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें का उल्लेख किया गया है।
कद्दू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु (Suitable climate for pumpkin cultivation)
गर्म जलवायु वाले क्षेत्र कद्दू (Pumpkin) की खेती के लिए अच्छे होते हैं। अच्छी जल निकास वाली और जीवांश युक्त बलुई मिट्टी या दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम पायी गयी है। बीज के जमाव और पौधों की बढ़वार के लिए 24-28 डिग्री सेल्शियस तापक्रम अच्छा होता है। नदी के किनारे दियारा भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। अधिक तापक्रम तथा लम्बे दिन होने पर इसमें नर पुष्पों की संख्या बढ़ जाती है। गर्मी की अपेक्षा बरसात के दिनों में फलत अच्छी होती है।
कद्दू की खेती के लिए भूमि का चयन (Selection of land for pumpkin cultivation)
कद्दू या काशीफल (Pumpkin) की खेती प्राय: सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है। अच्छी पैदावार लेने के लिए दोमट या बलुई दोमट भूमि जिसमें जीवांश की पर्याप्त मात्रा हो और उचित जल निकास वाली भूमि सर्वोत्तम रहती है। नदी के किनारे की दियारा भूमि में भी उचित जीवांश की मात्रा मिलाकर कद्दू की अच्छी खेती की जाती है।
अधिक अम्लीय तथा क्षारीय भूमि इसकी खेती के लिए नुकसानदायक साबित होती है। यह फसल 6.0 से 7.2 पीएच मान वाली भूमि में अच्छी उपज देती है। पथरीली या ऐसी भूमि जहाँ पानी लगता हो तथा जल निकास का अच्छा प्रबन्ध न हो इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है।
कद्दू की खेती के लिए खेत की तैयारी (Preparation of field for pumpkin cultivation)
कद्दू (Pumpkin) के खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं समतल कर लेना चाहिए जिससे खेत में सिंचाई करते समय पानी कम या ज्यादा न लगे। खेत तैयार करते समय 20 से 30 टन प्रति हेक्टेयर गली सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट अवश्य मिटटी में मिलाएं।
कद्दू की खेती के लिए उन्नत किस्में (Improved varieties for pumpkin cultivation)
वैज्ञानिक दृष्टि से कददू के अन्तर्गत तीन प्रजातियाँ काशीफल या समर स्क्वेश (कुकुरबिटा पीपो), विन्टर स्क्वेश छप्पन कददू (कुकरविटा मोस्चेटा) तथा कुकरबीटा मैक्सीमा आती है। काशीफल या समर स्क्वेश (कुकुरबिटा पीपो) में फलवृन्त गहराई तक उभार लिये होता है और फल में 5-8 धारियाँ होती हैं।
जबकि विन्टर स्क्वेश या शीतकालीन (कुकरविटा मोस्चेटा) में फलवृन्त से फल मजबूती से जुड़ा होता है तथा आमतौर पर फल पर 5 धारियाँ होती हैं तथा कुकरविटा मैक्सिमा में फलवृन्त बेलनाकार होता है तथा उसमें धारियाँ नहीं पायी जाती हैं। कद्दू वर्गीय कुछ किस्मे इस प्रकार है, जैसे-
समर स्क्वेश या ग्रीष्मकालीन (कुकरबिटा पीपो) किस्में-
काशीफल या कददू किस्में: पूसा अलंकार, पंजाब चप्पन कद्दू पूसा हाइब्रिड – 1, काशी शुभांगी या वाराणसी चप्पन कद्दू, नरेन्द्र उपहार, काशीहरित, नरेन्द्र अग्रिम, नरेन्द्र उपकार, नरेन्द्र आभूषण, नरेन्द्र अमृत, सरस, सुवर्णा, सूरज (केएयू), पीएयू मगज कददू – 1 पंजाब सम्राट, पीपीएच – 1, पीपीएच और कल्याणपुर कद्दू – 1 आदि मुख्य है।
विदेशी किस्में: अर्सी यलो प्रोलिफिक, पैटीपेन, आस्ट्रेलियन ग्रीन भारत में पेटीपान, ग्रीन हब्बर्ड, गोल्डन हब्बर्ड, गोल्डन कस्टर्ड और यलो स्टेट नेक नामक किस्में भी छोटे स्तर पर उगाई जाती हैं।
विन्टर स्क्वेश या शीतकालीन (कुकरविटा मोस्चेटा) किस्में-
कददू किस्में: अर्का सूर्यमुखी, अर्का चन्दन, पूसा बिश्वास, पूसा विकास, सीओ – 1 व 2 और अम्बिली आदि कद्दू (Pumpkin) की मुख्य है।
विदेशी किस्में: भारत में बटरनट, ग्रीन हब्बर्ड, गोल्डन हब्बर्ड, गोल्डन कस्टर्ड और यलो स्टेट नेक, येलो क्रूकनेक, स्माल सुगर तथा केण्टुकीफील्ड नामक किस्में भी छोटे स्तर पर उगाई जाती हैं।
भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर) द्वारा विकसित किस्में:- काशी उज्जवल, काशी हरित, काशी सुरभि तथा काशी धवल मुख्य है। इनमें काशी शुभांगी छप्पन भोग कद्दू की 50–55 दिन में पहली तुड़ाई होती है। इसके अलावा यह लगातार 70 दिन तक फल देती है। छप्पन भोग कद्दू (Pumpkin) की औसत उपज 325-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। एक हेक्टेयर में 7000 – 7500 पौधे लगाए जाते हैं।
कद्दू बुवाई का समय तथा बीज की मात्रा (Pumpkin sowing time and quantity of seeds)
बुवाई का समय: उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में कद्दू की फसल वर्ष में दो बार बोई जाती है। ग्रीष्म कालीन फसल की बोआई मुख्यत: फरवरी-मार्च में की जाती है। नदी के कछारी क्षेत्रों में दिसम्बर-जनवरी माह में ही बीज बो दिये जाते हैं। बरसात की फसल के लिए बीज जून-जुलाई में बोया जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बुवाई मार्च-अप्रैल में की जाती है।दक्षिण भारत में इसकी बुआई जून, अगस्त तथा दिसम्बर और जनवरी में करते है।
बीज की मात्रा: एक हेक्टेयर क्षेत्रफल कद्दू (Pumpkin) की बुआई के लिए 3-5 किग्रा बीज पर्याप्त होता है। अनुमानत: 100 ग्राम में लगभग 600 बीज होते हैं। एक स्थान पर कद्दू के 2 से 3 बीज बोए जाते है।
कद्दू की खेती के लिए बुवाई की विधि (Sowing method for kaddu cultivation)
सामान्यत: कद्दू (Pumpkin) की बरसात वाली फसल की बुवाई समतल खेत में 3 मीटर की दूरी पर कतार बनाकर छोटे थाले या कुण्ड 60x60x45 सेमी आकार के गड्डे या थालों में करते हैं। थाले से थाले की दूरी 1.5 मीटर रखी जाती है। प्रत्येक क्यारी में 8-10 बीज बोने चाहिए। कतार से कतार की दूरी 2-2.5 मीटर रखते हैं तथा कुण्ड से कुण्ड की दूरी 1.5 मीटर रखी जाती है। प्रत्येक कुण्ड या थाले में 4-5 बीज एक ही जगह बोने चाहिये।
बीजों के अंकुरण पश्चात् दो स्वस्थ पौधों को छोड़कर बाकी के पौधे उखाड़ देने चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। अत: इस फसल की बोआई नालियों में करना अच्छा रहता है। इसके लिए 2.5 से 3 मीटर के फासले पर लगभग 1 मीटर चौड़ी नालियाँ बनाते हैं और इन्हीं नालियों के दोनों किनारों पर दो थालों या कुण्डों में बीज की बुवाई की जाती है। कुण्ड से कुण्ड की दूरी 1-1.5 मीटर रखते हैं।
कद्दू की फसल में खाद और उर्वरक (Manure and fertilizer in kaddu crop)
कद्दू या काशीफल (Pumpkin) की अच्छी उपज लेने के लिए खाद एवं उर्वरक दोनों का ही समुचित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। खेत की प्रारम्भिक जुताई के समय 200 से 250 क्विंटल प्रति हेटेक्यर के हिसाब से गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद या वर्मीकम्पोस्ट 100-150 क्विंटल मिला देना चाहिए। 20 किलोग्राम नीम खली, 30 किलो ग्राम अरण्डी की खली, 120 किग्रा नत्रजन, 80 किग्रा फास्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता पड़ती है।
नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत में नालियाँ या थाले बनाते समय देते हैं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर खड़ी फसल में जड़ों के आस-पास बुआई के 15 तथा 40 दिनों बाद देना चाहिए। पानी में घुलनशील उर्वरक 19:19:19 का छिड़काव 5 ग्राम प्रति लीटर पानी में 3 से 4 बार 10 दिन के अंतराल पर जमाव के 15 दिन के बाद से करना चाहिए।
कद्दू की फसल में सिंचाई प्रबंधन (Irrigation Management in Pumpkin Crop )
यदि बीज उगने के लिए खेत में पर्याप्त नमी न हो तो पहली सिंचाई बोआई के बाद शीघ्र कर दें। दूसरी और तीसरी सिंचाई भी जल्दी यानि 4-6 दिन के अन्तर करें। ऐसा करने से बीज शीघ्र तथा आसानी से उग आयेंगें। ग्रीष्म ऋतु की फसल में 8-10 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है आवश्यकतानुसार 7-10 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिए।
बरसात की कद्दू (Pumpkin) फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि वर्षा लम्बे समय तक न हो तो सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। बरसात की फसल में उचित जल-निकास की व्यवस्था का होना भी आवश्यक है ताकि खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा न होने पाए।
कद्दू की फसल में खरपतवार नियंत्रण (Weed control in pumpkin crop)
कद्दू (Pumpkin) की अच्छी पैदावार लेने लिए खेत में खरपतवार नहीं उगने देना चाहिए। इसके लिए गर्मी की फसल में 2-3 बार तथा बरसात की फसल में 3-4 बार निराई गुड़ाई की आश्यकता पड़ती है। खुर्पी या फावड़े से निराई-गुड़ाई का कार्य किया जा सकता है, इससे खरपतवार तो समाप्त हो ही जाते हैं साथ ही भूमि में वायु का समुचित संचार होता है।
परिणामस्वरूप पौधों की अच्छी बढ़वार होती है। अधिक खरपतवार की दशा में एलाक्लोर नामक रसायन की 1.5 लीटर मात्रा को 750-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए या ऑक्सीलूरोफेन नींदानाशी की 1.2 किलोग्राम मात्रा 750 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।
कद्दू की फसल में पादप वृद्धि नियामक (Plant growth regulator in pumpkin crop)
कद्दू या काशीफल (Pumpkin) में 2-4 पत्ती की अवस्था पर इथ्रेल के 250 पीपीएम (250 मिलीग्राम प्रति लिटर) सान्द्रण वाले घोल का छिड़काव करने से मादा पुष्पों की संख्या बढ़ जाती है तथा उपज अधिक मिलती है।
कद्दू की फसल में कीट नियंत्रण (Pest control in pumpkin crop)
रेड पम्पकिन बीटल (लाल कद्दू भ्रंग): यह लाल रंग का कीट होता है, जो कद्दू (Pumpkin) पौधों के उगते ही उन्हे खाना प्रारंभ कर देता है। मिथाइल पैराथियान 0.2 प्रतिशत पाउडर 20 किग्रा प्रति हैक्टेयर लगाते समय या क्लोरोपायरीफास 20 प्रतिशत ईसी दवा का 0.2 प्रतिशत घोल का अंकुरण के 10 दिन पश्चात छिड़काव करें। इनकी रोकथाम हेतु सेविन 10 प्रतिशत धूल का 15-20 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें अथवा सेविन 50 प्रतिशत घुलनशील धूल के 0.2 प्रतिशत (200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में) का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
फल मक्खी (फूट फ्लाई): इसका आकार घरेलू मक्खी की तरह होता है। मादा मक्खी कद्दू (Pumpkin) फलों की ऊपरी सतह के ठीक नीचे अण्डे देती है। अण्डे फल के भीतर ही फूटते हैं तथा छोटे-छोटे कीड़े निकलते है, जिन्हे मैगट कहते है। यह मैगट फलों के गूदे को खाते हैं। कीट ग्रस्त फल विकृत या सड़ जाते हैं। कीट से प्रभावित फलों को नष्ट कर देना चाहिए। इनकी रोकथाम के लिये डाइक्लोरोवास दवा का 2 मिली एवं 100 ग्राम गुड़ प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें अथवा जैसे ही फूल आने लगें, मैलाथियान 0.02 प्रतिशत दवा का छिड़काव करना चाहिए।
व्यस्क मादा मक्खी को मारने के लिये विषचारा का उपयोग करना चाहिए। इसके लिये आधा (1/2) किग्रा प्रोटीन हाइड्रोजाइलेट तथा 1.25 लीटर 50 प्रतिशत मैलाथियान के मिश्रण को काम में लाना चाहिए, साथ ही बोरी के टाट के टुकड़ों पर निम्नलिखित चीजों से बनाया गया मिश्रण लगाकर खेत में कई स्थान पर रखना चाहिए ताकि कीट इसे खाकर मर जाऐं।1) ईस्ट प्रोटीन 500 ग्राम, 2) मैलाथियान (25 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 900 ग्राम, 3) पानी 13.5 लीटर आदि।
ऐपीलेक्ना बीटल: इस कीट पर काले रंग के धब्बे होते हैं। इसके प्रौढ़ तथा शिशु दोनों कद्दू फसल (Pumpkin) अंकुरित हो रहें छोटे पौधों को खा जाते हैं। इनका आक्रमण पत्तियों पर भी होता है तथा ये पत्तियों शिराओं के बीच के हरे भाग को खाकर उसे फीते के रुप में बना देते हैं। इस कीट का नियंत्रण रेड पम्पकिन बीटल के समान ही किया जाता है।
कट वर्म: इस कीट की सुण्डी रात में निकल कर छोटे पौधों को भूमि की सतह से काट देती है। इस कीट की रोकथाम हेतु सेविन-10 प्रतिशत धूल का 15-20 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए अथवा हैप्टाक्लोर धूल को 20-25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से फसल बोने से पहले खेत की मिट्टी में मिला देना चाहिए।
माहू या ऐफिड: ये अत्यंत छोटे-छोटे हरे रंग के कीट होते हैं, जो कद्दू (Pumpkin) पौधों के कोमल भागों से रस चूसते हैं। ये विषाणु जनित रोगों को फैलाने का भी काम करते हैं। पत्तियाँ पीली पड जाती है, जिससे पौधों की ओज एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इनकी रोकथाम के लिये फल आने से पहले की अवस्था में रोगोर अथवा मैटासिस्टाक्स 0.02 प्रतिशत (20 मिली 10 लीटर पानी में) दवा का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए।
कद्दू की फसल में रोग नियंत्रण (Disease control in pumpkin crop)
चूर्णिल असिता ( पाउडरी मिल्ड्यू): इस रोग के फलस्वरुप कद्दू (Pumpkin) पत्तियों की निचली सतह पर तथा बाद में पत्तियों के दोनों ओर सफेद व पीले रंग का चूर्ण जैसा इकट्ठा हो जाता है। पत्तियों के अलावा तना तथा फल और फूल पर भी आक्रमण होता है। पत्तियों की सामान्य वृद्धि रुक जाती है और पीली पड़ जाती है। इस रोग का प्रकोप सूखे मौसम में अधिक होता है।
इसके बचाव के लिये डीनोकेप 1.0 मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। 0.03 प्रतिशत कैरोथेन दवा (30 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में) के 15 दिन के अंतराल पर लगभग तीन छिड़काव करने चाहिए। कुछ किस्मों पर गंधक के चूर्ण का बुरकाव से हानि होती है। अत: इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रोपेकोनोजोल अथवा हैक्साकोनोजोल दवा के 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू): फफूंद या कवक केवल कद्दू (Pumpkin) पत्तियों पर आक्रमण करती है। यह रोग अधिक गर्मी, वर्षा एवं नमी वाले क्षेत्रों में होता है। रोगग्रस्त पौधे की पत्तियों के ऊपरी भाग पर पीले धब्बे तथा निचले भाग पर बैंगनी अथा धूसर रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। उग्र अवस्था में तना पर भी आक्रमण होता है तथा पत्तियों की निचली सतह पर रुई के समान मुलायम वृद्धि होती है। रोगी पौधों पर फल कम लगते हैं।
इसकी रोकथाम के लिए डाइक्लोरोवास दवा का 2 मिली एवं 100 ग्राम गुड़ प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें अथवा डाइथेन एम 45 अथवा डाइथेम जेड- 78 दवा के 0.2 प्रतिशत घोल (200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में) के 10-15 दिन के अन्तर पर लगभग 3 छिड़काव करने चाहिए। ब्लाइटाक्स 50 घोल (2.5 ग्राम दवा 1.0 लीटर पानी) अथवा फफूंद नाशक क्लोरोथैलोनील 1.5 किलोग्राम मात्रा को 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
श्याम वर्ण रोग (एन्थ्रेक्नोज): यह रोग कोलेटोट्राइकम प्रजाति की फफूँदियों द्वारा होता है। गर्म और नम मौसम में रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग में कद्दू (Pumpkin) फलों और पत्तों पर धब्बे पड़ जाते हैं, जिसके कारण पत्तियाँ झुलसी हुई मालूम पडती हैं।
रोग के नियंत्रण के लिए डाइथेन एम – 45 अथवा डाइथेन जेड- 78 के 0.2 से 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। यह रोग बीज जनित है। अत: बीज का बीजोपचार बुबाई पूर्व करना चाहिये।
विषाणु रोग: कई प्रकार के विषाणु कद्दूवर्गीय सब्जियों में आक्रमण करते हैं। रोग के प्रभाव से कद्दू (Pumpkin) पत्तियों पर पीले धब्बे पड़ जाते हैं तथा पत्तियाँ सिकुड़ कर सूख कर गिर जाती है। फलों पर हल्की कर्बुरण से लेकर मस्सेदार वृद्वि दिखाई पड़ती है। फल आकार में छोटे, टेड़े-मेढ़े तथा संख्या में कम लगते हैं। यह रोग प्रमुख रुप से माहू तथा सफेद मक्खी द्वारा फैलता है।
रोग नियंत्रण हेतु 0.03 प्रतिशत मेटासिस्टोक्स या 0.2 प्रतिशत रोगोर दवा का छिडकाव कर माहू पर नियन्त्रण रखना चाहिये। रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिये तथा प्रतिरोधक किस्मों का चयन कर उगाना चाहिये।
कद्दू फसल के फलों की तुड़ाई और उपज (Harvesting and yield of kaddu crop fruits)
फलों की तुड़ाई: आमतौर पर बोने के 65-90 दिन बाद हरे फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। फलों को तेज धार वाले चाकू से काटना चाहिए ताकि पौधों को क्षति न पहुंचे। बाजार की मांग के अनुसार ही हरे कच्चे या पीले पके हुए फल तोड़ने चाहिए। काशीफल (Pumpkin) अधिकतर पकने पर ही तोडे जाते हैं, क्योंकि कच्चे फलों को ज्यादा दिन नहीं रखा जा सकता है।
उपज: कद्दू (Pumpkin) की बरसात की फसल गर्मियों की फसल से अधिक पैदावार देती हैं, इसकी औसत उपज 500-700 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है।
भंडारण: कद्दू (Pumpkin) के अच्छी तरह पके हुए फलों को 4-5 माह तक भण्डारित किया जा सकता है । भण्डारण के लिए 10-15 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा 75 प्रतिशत आपेक्षित आर्द्रता ठीक रहता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न? (FAQs)
दोमट मिट्टी और बलुई दोमट मिट्टी में इसकी खेती के लिये सबसे उपयुक्त रहती है। कद्दू (Pumpkin) की फसल साल में दो बार लगाई जाती है, जिसमें पहली फसल फरवरी से मार्च और दूसरी खेती जून से अगस्त के बीच होती है। मौसम के अनुसार ही इसकी अलग-अलग किस्मों को लगाया जाता है, जिसमें प्रबंधन कार्य करके अच्छी आमदनी ले सकते हैं।
कद्दू (Pumpkin) ठंडे तापमान (50°F से नीचे) के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। बढ़ते मौसम दौरान कद्दू उत्पादन के लिए सबसे अच्छा औसत तापमान 65 और 95°F के बीच है। 95°F से ऊपर या 50°F से नीचे का तापमान फसल की वृद्धि और परिपक्वता को धीमा कर देता है।
कद्दू की खेती करने के लिए उचित जलनिकासी वाली जगह का चुनाव करना बेहद अहम हो जाता है। इसकी बेहतर खेती के लिए जमीन का पीएच मान 5 से 7 के बीच होना चाहिए। बरसात का मौसम इसकी खेती के लिए सबसे बेहतर माना जाता है। हम मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ मिलाने की सलाह देते हैं, विशेष रूप से नाइट्रोजन युक्त पदार्थ, क्योंकि कद्दू (Pumpkin) को उगते समय इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
दोमट मिट्टी और बलुई दोमट मिट्टी में इसकी खेती के लिये सबसे उपयुक्त रहती है। कद्दू (Pumpkin) की फसल साल में दो बार लगाई जाती है, जिसमें पहली फसल फरवरी से मार्च और दूसरी खेती जून से अगस्त के बीच होती है। मौसम के अनुसार ही इसकी अलग-अलग किस्मों को लगाया जाता है, जिसमें प्रबंधन कार्य करके अच्छी आमदनी ले सकते हैं।
काशी हरित: यह कद्दू (Pumpkin) की एक अच्छी किस्म है, इसका रंग हरा और आकार चपटा और गोलाकार होता है। बुवाई के 50 से 60 दिनों की भीतर ही यह किस्म पककर तैयार हो जाती है। इसके फल के बारे में बात करें, तो यह 3.5 किलो से पांच किलो तक के बीच होता है।
बरसात की फसल में प्राय: सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि वर्षा लम्बे समय तक न हो तो सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। बरसात की फसल में उचित जल -निकास की व्यवस्था का होना आवश्यक है ताकि खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा न होने पाए। कद्दू (Pumpkin) की अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत में खरपतवार नहीं उगने देना चाहिए।
अलग-अलग किस्मों को पकने में अलग-अलग समय लगता है। तेजी से पकने वाले कद्दू 70 से 100 दिनों में पूरी तरह से रंग जाते हैं, जबकि कुछ, जैसे गहरे लोब वाले ‘मस्की डी प्रोवेंस’ कद्दू (Pumpkin) को पकने में 125 दिन तक लगते हैं। छोटा ‘जैक बी लिटिल’ कद्दू 85 दिनों में ही पक जाता है।
कद्दू (Pumpkin) की खेती में, अधिक उपज प्राप्त करने के लिए खाद और उर्वरक की संतुलित मात्रा डालें। मिट्टी की तैयारी के दौरान लगभग 50 टन साधारण खाद डालना पड़ता है, जो आमतौर पर आखिरी जुताई में ऊपरी मिट्टी तक होता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम का प्रयोग उपज बढ़ाने में फायदेमंद है।
एक हेक्टेयर के खेत में कद्दू (Pumpkin) की 300 से 700 क्विंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है।
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